भारत में दलित चिंतन व आन्दोलन ने विचारधारा ब्राह्मणवाद के विरोध में निर्मित की है। ब्राह्मणवाद के तमाम मूल्य ,नैतिकता व विचारधारा मुख्यतः दो स्तम्भों पर टिकी है – पितृसत्ता और वर्ण -व्यवस्था। ब्राह्मणवाद की विचारधारा का आधार या जीवनस्त्रोत वेद -वेदांग , पौराणिक साहित्य और स्मृति ग्रन्थ हैं। इनमें निहित वर्चस्वी वर्ग के मूल्यों को चुनौती देकर ही दलित-दृष्टि का विकास हुआ है। ब्राह्मणवाद ने वर्ण-धर्म की खोज करके शूद्रों-दलितों को ज्ञान, सम्पत्ति व शक्ति से दूर रखा था और दलितों -शूद्रों ने जीवन-संघर्ष में जो ज्ञान अर्जित किया, उसे ज्ञान की श्रेणी में नहीं रखा। इसे प्राप्त प्राप्त करने के संघर्ष में ही दलित दृष्टि का विकास हुआ है। लोकायत , बौद्ध धर्म , भक्ति आंदोंलन व आधुनिक काल में समाज सुधार के दौरान ज्योतिबा फुले , आंबेडकर, नारायण गुरु , नायकर के आंदोलनों को वर्तमान दलित-आन्दोलन की पृष्ठभूमि, परम्परा व स्त्रोत के तौर पर रखा जा सकता है।
दलित-आन्दोलन की मूल प्रकृति सामाजिक है। आमूल-चूल सामाजिक बदलाव के लिए राजनितिक शक्ति हासिल करना दलित-आन्दोलन की जरूरत है, लेकिन सिर्फ सत्ता प्राप्त करना व उसमें बने रहने मात्र से ही दलित-आन्दोलन का भला नही हो सकता। राजनितिक सत्ता की कुंजी से सामाजिक भेदभाव व असमानता के ताले को खोलने की जरूरत पर डॉ आंबेडकर ने पूरा जोर दिया था।
दलित-आन्दोलन को समग्र दृष्टि की आवश्यकता है, जो सामाजिक, राजनितिक व आर्थिक सवालों की पूर्णता में संबोधित करे। आर्थिक सवालों को दरनिकार करके मात्र सामाजिक सम्मान प्राप्त करने का संघर्ष समाज में ठोस बदलाव नहीं ला सकता और सामाजिक सवालों को छोडकर केवल आर्थिक हितों के लिए संघर्ष की भी यही परिणिति है। असल में दलित-आन्दोलन व चिन्तन महत्वपूर्ण दौर से गुजर रहा है। जहां उसका राजनितिक विस्तार हो रहा है , उसमें पूंजीवादी-सामन्ती विचार भी अपनी जगह बना रहे हैं। दलित-विरोधी फासीवादी-शक्तियों की भी दलित -आन्दोलन पर कड़ी नजर है, जो किसी न किसी रूप में अपने लिए जगह तलाश रहा है।उसी के परिणामस्वरूप इस तरह के रुझान वहां प्रवेश ही नही पा जाते, बल्कि आधिपत्य जमा लेते हैं।
कोई आन्दोलन विस्तार पाता है , तो वह अपनी परम्परा की पहचान करता है। जो आन्दोलन प्रगतिशील परम्परा की सही पहचान करके उसे अपने आन्दोलन से जोड़ पाता है, तभी उसका भविष्य भी उज्जवल होता है। परम्परा के प्रति व्यवहार पर ही दलित-आन्दोलन व चिंतन का भविष्य टिका है।
सन्दर्भ -पुस्तक के मुख पृष्ठ से
दलित मुक्ति आन्दोलन : सीमाएं और संभावनाएं – डॉ सुभाष चन्द्र
आधार प्रकाशन , पंचकूला (हरियाणा)
प्रथम संस्करण: 2010
मूल्य :150 रूपये
ISBN: 978-81-7675-247-3