शहीद भगत सिंह का भारतीय युवाओं को सन्देश
डॉ. देशराज सिरसवाल
28 सितम्बर को पूरा देश शहीद भगत सिंह का जन्मदिवस मनाता है. अलग अलग जगह कार्यक्रम होते हैं जो की मात्र औपचारिकता बनकर रह जातें हैं क्यूंकि कार्यक्रम का उद्धेश्य भिन्न भिन्न होता है. राजनेता या तो सिखों को वोट बैंक बनाने के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं या युवाओं को भावनात्मक रूप से मुर्ख बनाकर उनका इस्तेमाल करते हैं. इस तरह के कार्यक्रम शहीद भगत सिंह की विचारधारा का सम्मान और उसका प्रचार करने की बजाये गुमराह करने के लिए होते हैं. आज हमारे समाज में हमे विचारधारा के प्रति खोखलापन दिखाई देता है चाहे वह अम्बेडकरवादी हो, गाँधीवादी हो या मार्क्सवादी. तथाकथित नेता अपना हित साधते हैं. इस प्रक्रिया में देश का कितना नुकसान हो रहा है कोई नहीं समझता और न ही इसके लिए प्रयास किये जाते हैं. यहाँ पर हम भगतसिंह के युवाओं के प्रति विचारों का वर्णन करेंगे.
‘युवक!’ शीर्षक से लिखा गया भगतसिंह का लेख ‘साप्ताहिक मतवाला’ (वर्ष : 2, अंक सं. 36, 16 मई, 1925) में बलवन्तसिंह के नाम से छपा था। जोकि युवाओं के प्रति उनकी भावनाओं को दर्शाता है, जिसमें वह युवाओं के गुणों का वर्णन करते हैं. निम्नलिखित अंश उसी लेख से है :
“युवावस्था मानव-जीवन का वसन्तकाल है। उसे पाकर मनुष्य मतवाला हो जाता है। हजारों बोतल का नशा छा जाता है। विधाता की दी हुई सारी शक्तियाँ सहस्र धारा होकर फूट पड़ती हैं। मदांध मातंग की तरह निरंकुश, वर्षाकालीन शोणभद्र की तरह दुर्द्धर्ष,प्रलयकालीन प्रबल प्रभंजन की तरह प्रचण्ड, नवागत वसन्त की प्रथम मल्लिका कलिका की तरह कोमल, ज्वालामुखी की तरह उच्छृंखल और भैरवी-संगीत की तरह मधुर युवावस्था है। उज्जवल प्रभात की शोभा, स्निग्ध सन्ध्या की छटा, शरच्चन्द्रिका की माधुरी ग्रीष्म-मध्याह्न का उत्ताप और भाद्रपदी अमावस्या के अर्द्धरात्र की भीषणता युवावस्था में निहित है। जैसे क्रांतिकारी की जेब में बमगोला, षड्यंत्री की असटी में भरा-भराया तमंचा, रण-रस-रसिक वीर के हाथ में खड्ग, वैसे ही मनुष्य की देह में युवावस्था। 16 से 25 वर्ष तक हाड़- चाम के सन्दूक में संसार-भर के हाहाकारों को समेटकर विधाता बन्द कर देता है। दस बरस तक यह झाँझरी नैया मँझधार तूफान में डगमगाती तहती है। युवावस्था देखने में तो शस्यश्यामला वसुन्धरा से भी सुन्दर है, पर इसके अन्दर भूकम्प की-सी भयंकरता भरी हुई है। इसीलिए युवावस्था में मनुष्य के लिए केवल दो ही मार्ग हैं- वह चढ़ सकता है उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर, वह गिर सकता है अध:पात के अंधेरे खन्दक में। चाहे तो त्यागी हो सकता है युवक, चाहे तो विलासी बन सकता है युवक। वह देवता बन सकता है, तो पिशाच भी बन सकता है। वही संसार को त्रस्त कर सकता है, वही संसार को अभयदान दे सकता है। संसार में युवक का ही साम्राज्य है। युवक के कीर्तिमान से संसार का इतिहास भरा पड़ा है। युवक ही रणचण्डी के ललाट की रेखा है। युवक स्वदेश की यश-दुन्दुभि का तुमुल निनाद है। युवक ही स्वदेश की विजय-वैजयंती का सुदृढ़ दण्ड है। वह महाभारत के भीष्मपर्व की पहली ललकार के समान विकराल है, प्रथम मिलन के स्फीत चुम्बन की तरह सरस है, रावण के अहंकार की तरह निर्भीक है, प्रह्लाद के सत्याग्रह की तरह दृढ़ और अटल है। अगर किसी विशाल हृदय की आवश्यकता हो, तो युवकों के हृदय टटोलो। अगर किसी आत्मत्यागी वीर की चाह हो, तो युवकों से माँगो। रसिकता उसी के बाँटे पड़ी है। भावुकता पर उसी का सिक्का है। वह छन्द शास्त्र से अनभिज्ञ होने पर भी प्रतिभाशाली कवि है। कवि भी उसी के हृदयारविन्द का मधुप है। वह रसों की परिभाषा नहीं जानता,पर वह कविता का सच्चा मर्मज्ञ है। सृष्टि की एक विषम समस्या है युवक। ईश्वरीय रचना-कौशल का एक उत्कृष्ट नमूना है युवक। सन्ध्या समय वह नदी के तट पर घण्टों बैठा रहता है। क्षितिज की ओर बढ़ते जानेवाले रक्त-रश्मि सूर्यदेव को आकृष्ट नेत्रों से देखता रह जाता है। उस पार से आती हुई संगीत-लहरी के मन्द प्रवाह में तल्लीन हो जाता है। विचित्र है उसका जीवन। अद्भुत है उसका साहस। अमोघ है उसका उत्साह।
वह निश्चिन्त है, असावधान है। लगन लग गयी है, तो रात-भर जागना उसके बाएं हाथ का खेल है, जेठ की दुपहरी चैत की चांदनी है, सावन-भादों की झड़ी मंगलोत्सव की पुष्पवृष्टि है, श्मशान की निस्तब्धता, उद्यान का विहंग-कल कूजन है। वह इच्छा करे तो समाज और जाति को उद्बुद्ध कर दे, देश की लाली रख ले, राष्ट्र का मुखोज्ज्वल कर दे, बड़े-बड़े साम्राज्य उलट डाले। पतितों के उत्थान और संसार के उद्धारक सूत्र उसी के हाथ में हैं। वह इस विशाल विश्व रंगस्थल का सिद्धहस्त खिलाड़ी है।
अगर रक्त की भेंट चाहिए, तो सिवा युवक के कौन देगा ?अगर तुम बलिदान चाहते हो, तो तुम्हें युवक की ओर देखना पड़ेगा। प्रत्येक जाति के भाग्यविधाता युवक ही तो होते हैं। एक पाश्चात्य पंडित ने ठीक ही कहा है- It is an established truism that youngmen of today are the countrymen of tomorrow holding in their hands the high destinies of the land. They are the seeds that spring and bear fruit. भावार्थ यह कि आज के युवक ही कल के देश के भाग्य-निर्माता हैं। वे ही भविष्य के सफलता के बीज हैं।
संसार के इतिहासों के पन्ने खोलकर देख लो, युवक के रक्त से लिखे हुए अमर सन्देश भरे पड़े हैं। संसार की क्रांतियों और परिवर्तनों के वर्णन छाँट डालो, उनमें केवल ऐसे युवक ही मिलेंगे,जिन्हें बुद्धिमानों ने ‘पागल छोकड़े’ अथवा ‘पथभ्रष्ट’ कहा है। पर जो सिड़ी हैं, वे क्या ख़ाक समझेंगे कि स्वदेशाभिमान से उन्मत्त होकर अपनी लोथों से किले की खाइयों को पाट देनेवाले जापानी युवक किस फौलाद के टुकड़े थे। सच्चा युवक तो बिना झिझक के मृत्यु का आलिंगन करता है, चौखी संगीनों के सामने छाती खोलकर डट जाता है, तोप के मुँह पर बैठकर भी मुस्कुराता ही रहता है, बेड़ियों की झनकार पर राष्ट्रीय गान गाता है और फाँसी के तख्ते पर अट्टहासपूर्वक आरूढ़ हो जाता है।फाँसी के दिन युवक का ही वजन बढ़ता है, जेल की चक्की पर युवक ही उद्बोधन मन्त्र गाता है,कालकोठरी के अन्धकार में धँसकर ही वह स्वदेश को अन्धकार के बीच से उबारता है। अमेरिका के युवक दल के नेता पैट्रिक हेनरी ने अपनी ओजस्विनी वक्तृता में एक बार कहा था- Life is a dearer outside the prisonwalls, but it is immeasurably dearer within the prison-cells, where it is the price paid for the freedom’s fight. अर्थात् जेल की दीवारों से बाहर की जिन्दगी बड़ी महँगी है,पर जेल की काल कोठरियो की जिन्दगी और भी महँगी है क्योंकि वहाँ यह स्वतन्त्रता-संग्राम के मूल्य रूप में चुकाई जाती है।
जब ऐसा सजीव नेता है, तभी तो अमेरिका के युवकों में यह ज्वलन्त घोषणा करने का साहस भी है कि, “We believe that when a Government becomes a destructive of the natural right of man, it is the man’s duty to destroy that Government.”अर्थात् अमेरिका के युवक विश्वास करते हैं कि जन्मसिद्ध अधिकारों को पद-दलित करने वाली सत्ता का विनाश करना मनुष्य का कर्तव्य है।
ऐ भारतीय युवक! तू क्यों गफलत की नींद में पड़ा बेखबर सो रहा है। उठ, आँखें खोल, देख, प्राची-दिशा का ललाट सिन्दूर-रंजित हो उठा। अब अधिक मत सो। सोना हो तो अनंत निद्रा की गोद में जाकर सो रह। कापुरुषता के क्रोड़ में क्यों सोता है? माया-मोह-ममता का त्याग कर गरज उठ-
“Farewell Farewell My true Love The army is on move; And if I stayed with you Love, A coward I shall prove.”
तेरी माता, तेरी प्रात:स्मरणीया, तेरी परम वन्दनीया, तेरी जगदम्बा, तेरी अन्नपूर्णा, तेरी त्रिशूलधारिणी, तेरी सिंहवाहिनी, तेरी शस्यश्यामलांचला आज फूट-फूटकर रो रही है। क्या उसकी विकलता तुझे तनिक भी चंचल नहीं करती? धिक्कार है तेरी निर्जीवता पर! तेरे पितर भी नतमस्तक हैं इस नपुंसकत्व पर! यदि अब भी तेरे किसी अंग में कुछ हया बाकी हो, तो उठकर माता के दूध की लाज रख, उसके उद्धार का बीड़ा उठा, उसके आँसुओं की एक-एक बूँद की सौगन्ध ले, उसका बेड़ा पार कर और बोल मुक्त कण्ठ से- वंदेमातरम्।”
विद्यार्थियों के राजनीती में सम्मिलित होने बारे उन्होंने अपने लेख “विद्यार्थी और राजनीती” में लिखते हैं, “यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं?यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं, जो सिर्फ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाये। ऐसी शिक्षा की जरूरत ही क्या है? कुछ ज्यादा चालाक आदमी यह कहते हैं- “काका तुम पोलिटिक्स के अनुसार पढ़ो और सोचो जरूर, लेकिन कोई व्यावहारिक हिस्सा न लो। तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फायदेमन्द साबित होगे।”
भगतसिंह सिर्फ तथ्यों को रटने या पढने को शिक्षा नहीं मानते थे, बल्कि वो व्यावहारिक ज्ञान को महत्व देते थे. वे लिखते हैं, “सभी मानते हैं कि हिन्दुस्तान को इस समय ऐसे देश-सेवकों की जरूरत हैं, जो तन-मन-धन देश पर अर्पित कर दें और पागलों की तरह सारी उम्र देश की आजादी के लिए न्योछावर कर दें। लेकिन क्या बुड्ढों में ऐसे आदमी मिल सकेंगे? क्या परिवार और दुनियादारी के झंझटों में फँसे सयाने लोगों में से ऐसे लोग निकल सकेंगे? यह तो वही नौजवान निकल सकते हैं जो किन्हीं जंजालों में न फँसे हों और जंजालों में पड़ने से पहले विद्यार्थी या नौजवान तभी सोच सकते हैं यदि उन्होंने कुछ व्यावहारिक ज्ञान भी हासिल किया हो। सिर्फ गणित और ज्योग्राफी का ही परीक्षा के पर्चों के लिए घोंटा न लगाया हो।”
भगतसिंह एक विद्यार्थी के रूप में भी और विचारक के रूप में भी भारतीय इतिहास में एक सशक्त हस्ताक्षर हैं. उनके लेखों और विचारों को पढ़ कर इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है. नौजवानों के बारे में दुसरे भारतीय चिंतकों को को भी वो बखूबी समझते थे और उसका विश्लेषण करते थे. अपने लेख “नये नेताओं के अलग- अलग विचार” में लिखते हैं :
“जिस देश में जाओ वही समझता है कि उसका दुनिया के लिए एक विशेष सन्देश है। इंग्लैंड दुनिया को संस्कृति सिखाने का ठेकेदार बनता है। मैं तो कोई विशेष बात अपने देश के पास नहीं देखता। सुभाष बाबू को उन बातों पर बहुत यकीन है।” जवाहरलाल कहते हैं —
“Every youth must rebel. Not only in political sphere, but in social, economic and religious spheres also. I have not much use for any man who comes and tells me that such and such thing is said in Koran, Every thing unreasonable must be discarded even if they find authority for in the Vedas and Koran.”
[यानी] “प्रत्येक नौजवान को विद्रोह करना चाहिए। राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में भी। मुझे ऐसे व्यक्ति की कोई आवश्यकता नहीं जो आकर कहे कि फलाँ बात कुरान में लिखी हुई है। कोई बात जो अपनी समझदारी की परख में सही साबित न हो उसे चाहे वेद और कुरान में कितना ही अच्छा क्यों न कहा गया हो, नहीं माननी चाहिए।”
यह एक युगान्तरकारी के विचार हैं और सुभाष के एक राज-परिवर्तनकारी के विचार हैं। एक के विचार में हमारी पुरानी चीजें बहुत अच्छी हैं और दूसरे के विचार में उनके विरुद्ध विद्रोह कर दिया जाना चाहिए। एक को भावुक कहा जाता है और एक को युगान्तरकारी और विद्रोही। पण्डित जी एक स्थान पर कहते हैं —
“To those who still fondly cherish old ideas and are striving to bring back the conditions which prevailed in Arabia 1300 years ago or in the Vedic age in India. I say, that it is inconceivable that you can bring back the hoary past. The world of reality will not retrace its steps, the world of imaginations may remain stationary.”
भगतसिंह व्यक्तिगत प्रेम की बजाये सार्वभौम प्रेम के पक्षधर थे,जो आजकल के युवाओं के लिए एक महत्वपूर्ण प्रेरणा सिद्ध हो सकती है. “सुखदेव के नाम पत्र” में वे प्रेम को इस प्रकार प्रकट करते है:
“जहाँ तक प्यार के नैतिक स्तर का सम्बन्ध है , मैं यह कह सकता हूँ की यह अपने में एक भावना से अधिक कुछ भी नहीं और यह प्शुवृति नहीं बल्कि मधुर मानवीय भावना है. प्यार सदैव मानवचरित्र को ऊँचा करता है, कभी भी नीचा नहीं दिखाता, बशर्ते कि प्यार प्यार हो…..मैं यहकह सकता हूँ कि नौजवान युवक-युवती आपस में प्रेम कर सकते हैं और वे अपने प्यार के सहारे अपने आवेगों से उपर उठ सकते हैं. अपनी पवित्रता कायम रखे रह सकते हैं. मैं यहाँ स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जब मैंने प्यार को मानवीय कमजोरी कहा था तो यह किसी सामान्य व्य्करी को लेकर नहीं कहा था, जहाँ तक की बौधिक स्तर पर सामान्य व्यक्ति होते हैं पर वह सबसे उच्च आदर्श स्थिति होगी जब मनुष्य प्यार, घृणा और अन्य सभी भावनाओं पर नियन्त्रण पा लेगा. जब मनुष्य कर्म के आधार पर अपना पक्ष अपनायेगा. एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति से प्यार की मैंने निन्दा की है, वह भी एक आदर्श स्थिति होने पर. मनुष्य के पास प्यार की एक गहरी भावना होनी चाहिए जिसे वह एक व्यक्ति विशेष तक सिमित न करके सर्वव्यापी बना दे.”
“मैं नास्तिक क्यों हूँ ?” में भगतसिंह अपने विचारों को प्रकट करते हुए कहते है की विकास के लिए व्यक्ति को अपनी आलोचनात्मक शक्ति के द्वारा ही आगे बढना चाहिए और पुरानी परम्पराओं का आलोचनात्मक मुल्यांकन करना चाहिए. वे लिखते हैं , “प्रत्येक मनुष्य को, जो विकास के लिए खड़ा हैं रूढ़िगत विश्वासों के हर पहलु की आलोचना तथा उन पर अविश्वास करना होगा और उनको चुनौती देनी होगी. प्रत्येक प्रचलित मत की हर बात को हर कोने से तर्क की कसौटी पर कसना होगा . यदि काफी तर्क के बाद भी वह किसी सिद्धांत अथवा दर्शन के प्रति प्रेरित होता है, तो उसके विश्वास का स्वागत है .”
भगत सिंह ने ठोस विचारों , यानि वैज्ञानिक आधार पर ऐतिहासिक-भौतिकवादी सांचे में ढले चिन्तन और क्रान्तिकारी चरित्र की दृढ़ता पर बल दिया. भारतीय समाज की ऐतिहासिक जरूरत को समझते हुए, उसके भविष्यत आदर्श के बारे में उन्होंने बार -बार स्पष्ट कहा, “क्रांति, जो जनता के लिए हो और जिसे जनता ही पूरी करे. ” तथा “क्रांति का इस सदी में एक ही मतलब हो सकता है – जनता के लिए जनता द्वारा राजनितिक सत्ता पर कब्जा.” अपने क्रांतिकारी मसौदे में उन्होंने लिखा, “साम्राज्यवादियों को गद्दी से उतारने का भारत के पास एकमात्र हथियार श्रमिक क्रांति है. कोई और चीज़ इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर सकते .” जिन नवयुवकों को देश और जनता के भविष्य के लिए काम करना है, उन्हें तैयार करने के लिए, अनेक गुणों व् सिद्धांतों से परिचित करवाने के लिए, भगत सिंह ने बहुत काम किया. “सम्पादक, मॉडर्न रिव्यु के नाम पत्र” में क्रान्ति को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, “एक वाक्य में क्रान्ति शब्द का अर्थ ‘प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना एव आकांक्षा’ है। लोग साधारणतया जीवन की परम्परागत दशाओं के साथ चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार से ही काँपने लगते हैं। यही एक अकर्मण्यता की भावना है, जिसके स्थान पर क्रान्तिकारी भावना जाग्रत करने की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अकर्मण्यता का वातावरण निर्मित हो जाता है और रूढ़िवादी शक्तियाँ मानव समाज को कुमार्ग पर ले जाती हैं। यही परिस्थितियाँ मानव समाज की उन्नति में गतिरोध का कारण बन जाती हैं।”
विद्यार्थी जीवन सिखने के लिए है जानने के लिए है लेकिन यह सीखना और जानना आजकल बस अक्षर ज्ञान ही बनकर रह गया है. शिक्षा प्रणाली की वर्तमान आवश्यकता है की वह युवाओं को समाज के प्रति संवेदनशील बनाएं और उन्हें समाज कर प्रति उनके कर्तव्यों कर प्रति जागरूक किया तभी हमारा देश वास्तव में लोकतान्त्रिक देश हो सकता है अन्यथा हम भारतीय समाज को गर्त की तरफ ले जा रहे है और शहीद भगतसिंह सरीखे विचारकों से विमुख हो रहे है.
जय हिन्द , जय भारत ..
सन्दर्भ:
“भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज” सम्पादक ; जगमोहन सिंह एवम चमनलाल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2001.
“भगतसिंह” (भगतसिंह के लेखों का हिंदी अनुवाद)
http://www.marxists.org/hindi/bhagat-singh/